सर सय्यद अहमद खान

आज के आर्टिकल हम चर्चा करेंगे सर सय्यद अहमद खान के बारे में। उन्नीस वी शताब्दी वे एक बहुत बड़े फिलोसोफर यानी तत्वज्ञानी, लेखक तथा मुस्लिम के सुधारवादी नेता थे। इन्हें इस्लाम के रिफॉर्मर यानी सुधारवादी इसलिए कहा जाता था क्योंकि उन्होंने इस्लाम की धकियानूसी तथा अंधविश्वास को दूर करने का प्रयास किया। इस आर्टिकल में हम सर सैयद अहमद खान कौन थे? तथा इनकी विचारधारा के बारे में जानने का प्रयास करेंगे.

सर सैयद अहमद खान का जन्म 1870 में हुआ। इनका जन्म स्थान है दिल्ली। उस समय दिल्ली मुगल शासक की राजधानी हुआ करती थी. सर सैयद अहमद खान के पिताजी मुगल शासन में अकबरशाह द्वितीय के वक्त उनके व्यक्तिगत सलाहकार हुआ करते थे . उस समय व्यक्तिगत सलाहकार यह एक बहुत बड़ी पोस्ट होती थी। इतना ही नहीं सर सैयद अहमद खान के दादा तथा परदादा भी मुगल बादशाहो के बड़े बड़े पद पर रहे। जैसे की वजीर, प्रशासनिक अधिकारी, मंत्री इस तरह के पदों पर। इसका मतलब सर सैयद अहमद खान अमीर तो थे साथ में वे काफी ताकतवर परिवार से ताल्लुक रखते थे। सर सैयद अहमद खान पढ़ने लिखने में काफी तेज थे तथा वे बुद्धिजीवी भी थे। उन्होंने धार्मिक तथा आधुनिक शिक्षा ग्रहण की.

जब इनकी पढ़ाई पूरी हो गई तब मुगल बादशाह ने इनके सामने अपने मुग़ल प्रशासन में सेवा देने के लिए प्रस्ताव रखा। लेकिन सर सैयद अहमद खान ने मुगल बादशाह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। क्योंकि उस समय मुगल काफी कमजोर हो चुके थे तथा बादशाह अंग्रेजों के वेतन पर अपना गुजर-बसर कर रहा था कुल मिलाकर देखा जाए तो वह केवल नाम का राजा था। इस चीज का आकलन करते हुए सर सैयद अहमद खान ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में अपनी सेवा देने का निर्णय लिया। तथा सर सैयद अहमद खान ने ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी करना शुरू कर दी। लेकिन उनको सबसे पहले केवल क्लर्क की नौकरी मिली तथा वे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में काफी मेहनत से काम कर रहे थे। उनके समर्पण को देखते हुए अंग्रेजों ने उन्हें लगातार प्रमोशन याने की बढ़ोतरी दी। तथा सर सैयद अहमद खान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के एक वफादार कर्मचारी थे। उसी वक्त 1857 का उठाव हुआ था। वहीं दूसरी और सर सैयद अहमद खान बिजनौर कोर्ट में चीफ असिस्टेंट ऑफिसर के पद तक पहुंच गए। 1857 के उठाव के वक्त उन्होंने ब्रिटिश सरकार का समर्थन किया।

वर्ष 1859 में उन्होंने एक बुकलेट पब्लिश की The causes of Indian revolt 1857. तथा उन्होंने अट्ठारह सत्तावन के उठाव के कारणों पर एक डिटेल रिसर्च पेपर पब्लिश किया। इसी बुकलेट में उन्होंने अंग्रेज सरकार को कुछ सिफारिशें की ताकि इस तरह की रिवोल्ट को होने से रोका जा सके। इस रिसर्च पेपर में उन्होंने 1857 की रिवोल्ट में भारतीयों के लिए हरामजदगी नाम का शब्द का प्रयोग किया।

शुरुआत में सय्यद अहमद खान हिंदू मुस्लिम एकता के समर्थक थे तथा वे मानते थे की हिन्दू मुसलमान दोनों नेत्रों के सुन्दर रत्न है.

लेकिन वे मुस्लिम समुदाय के प्रति ज्यादा संवेदनशील थे तथा वे मुस्लिमों को संदेश देते थे कि आधुनिक शिक्षा तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही मुस्लिम समाज में सुधार लाया सकता है। इसके साथ ही वे मुस्लिम समुदाय के युवाओं को संदेश देते थे कि अगर युवा ब्रिटिश सरकार में नौकरी चाहते हैं तो उनके वफादार बनिए तथा उनका समर्थन कीजिए।

इसी के चलते उन्होंने 1875 में मोमडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज की स्थापना की तथा इस कॉलेज की खास बात यह थी की यह साउथ एशिया की पहली मोमडन यूनिवर्सिटी थी. लेकिन वर्ष 1920 से इसे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के नाम से जाना गया. वर्ष 1876 में सर सैयद अहमद खान ब्रिटिश सरकार के सरकारी नौकरी से रिटायर हो गए।

9 वर्ष बाद 1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस का गठन हुआ। लेकिन सर सैयद अहमद खान इंडियन नेशनल कांग्रेस को एक हिंदू संघटना के नजरिए से देखते थे। तथा उसके बाद हिंदू मुस्लिम एकता को लेकर उनके विचार बदल गए। उन्होंने अब मुस्लिमों के मन में यह बात डाली की मानलो देश आजाद हो जाता है, ब्रिटिशर्स तो चले जाएंगे लेकिन यहां पर तो हिंदुओं की मेजॉरिटी है मुसलमान अल्पसंख्यक है तथा इलेक्शन के दौरान जीतेगा कौन? हिंदू जीतेगा. कानून कौन बनाएगा? हिंदू बनाएगा. तो इन परिस्थितियों में मुसलमानों के लिए कौन विचार करेगा? इसलिए उन्होंने मुस्लिमों को यह उपाय बताया कि जब तक ब्रिटिश सरकार यहां पर है तब तक मुस्लिम समुदाय ने उनका पूरी तरीके से समर्थन करना चाहिए। तथा उनके साथ वफादारी बरतना चाहिए।

इस तरह 1898 में अल्लाह को प्यारे होने से पहले सर सय्यद अहमद खान ने हिन्दू मुस्लिम के बिच दरार की नीव रख दी तथा मुस्लिमो द्वारा इसके बाद एक स्वतंत्र मुस्लिम राजनितिक पार्टी बनने की मांग जोर पकड़ने लगी ताकि वो पार्टी मुस्लिमो की आवाज़ बुलंद कर सके. धन्यवाद!

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