बंगाल विभाजन तथा मुस्लिम लीग की स्थापना.
आज के आर्टिकल में हम लखनऊ पैक्ट 1916 के बारे में पढ़ेंगे. 1916 का जो कांग्रेस सेशन हुआ था वह लखनऊ में हुआ था। इस कांग्रेस सेशन में मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस ने मिलकर एक एग्रीमेंट साइन किया। इसी एग्रीमेंट को लखनऊ पैक्ट के नाम से जाना जाता है। 1916 के लखनऊ के कांग्रेस सेशन के अध्यक्ष थे अंबिका चरण मजूमदार तथा मुस्लिम लीग की अध्यक्षता कर रहे थे मोहम्मद अली जिन्ना। लेकिन यहां अब दो प्रश्न बनते हैं। लखनऊ के कांग्रेस सेशन में मुस्लिम लीग क्या कर रही थी? दूसरी बात, ऐसी कौन सी वजह थी कि दोनों पार्टी को साथ ले आई? हम इस आर्टिकल में यह भी जानकारी हासिल करेंगे कि लखनऊ पॅक्ट के एग्रीमेंट में कौन-कौन से प्रोविजन थे?
लखनऊ पैक्ट की पृष्ठभूमि।
बात वर्ष 1905 की है। 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का पार्टीशन कर दिया। लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन कुछ इस तरह किया की बंगाल वेस्टर्न पार्ट हिंदू मेजॉरिटी बन गया तथा ईस्टर्न पार्ट मुस्लिम मेजॉरिटी का बन गया। जब कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया तो विभाजन के विरोध मे आंदोलन शुरू हो गया। बंगाल विभाजन के खिलाफ भारतीय जनता द्वारा स्वदेशी बॉयकॉट मूवमेंट शुरू हो गया। मगर इस आंदोलन में मुस्लिम का पार्टिसिपेशन काफी कम था क्योंकि वे बंगाल विभाजन से संतुष्ट थे। तथा बंगाल पार्टीशन को लेकर हिंदू समुदाय के बीच नाराजगी थी।
मुस्लिम समुदाय बंगाल विभाजन के समर्थन का कारण.
मुस्लिम समुदाय बंगाल विभाजन के समर्थन में थे क्योंकि विभाजन के पहले जो अखंड बंगाल था उसमें हिंदू मेजॉरिटी मे थे तथा मुस्लिम माइनॉरिटी मे थे। इस लिहाज से बंगाल विभाजन मुस्लिम लीग के लिए फायदेमंद था। क्योंकि अंग्रेजों ने खुद के फायदे के लिए तथा मुस्लिम तुष्टीकरण के खातिर ईस्टर्न बंगाल के रूप मे मुस्लिम मेजोरिटी का इलाका बनाया. जब मुस्लिम समुदाय के दृष्टिकोण से विभाजन समझे एक तरफ ब्रिटिश सरकार मुस्लिम समुदाय के भले के लिए काम कर रही हैं जबकि दूसरी तरफ इंडियन नेशनल कांग्रेस बंगाल विभाजन का विरोध कर रही थी.
मुस्लिम लीग की स्थापना तथा उद्देश्य
1906 को मुस्लिम लीग की स्थापना हुई तथा मुस्लिम समुदाय के राजनैतिक हितो की रक्षा करना मुस्लिम लीग का मुख्य उद्देश्य था तथा पार्टी ने ब्रिटिश सरकार को समर्थन करते हुए राजनैतिक हितो को हासिल करने की रणनीति अपनायी. लेकिन उसके बाद मुस्लिम लीग के साथ कुछ ऐसी घटनाये घटी जिस वजह से मुस्लिम समुदाय के हितो को ठेस पहुंच रही थी.
घटनाये निम्मलिखित हैं.
वर्ष उन्नीस सौ नौ में ब्रिटिश सरकार, गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1909 लाने वाली थी. इस एक्ट को मोर्ले मिंटो रिफार्म के नाम से भी जाना जाता है। मुस्लिम लीग को आशा थी कि इस रिपोर्ट के जरिए मुस्लिम लीग की सारी मांगे पूरी की जाएंगी. तथा इस एक्ट मे मुस्लिम लीग सेपरेट इलेक्टोरेट यानि स्वतंत्र मतदार संघ की मांग की थी जो मान ली गयी.
इनकी दूसरी मुख्य मांग थी की वोइसरॉय की एग्जीक्यूटिव कौंसिल मे दो भारतीय होने चाहिए एक हिन्दू तथा दूसरा मुस्लिम लेकिन इस मांग को ब्रिटिशो द्वारा ठुकरा दिया गया तथा वोइसरॉय के एग्जीक्यूटिव कौंसिल मे केवल एक भारतीय लिया गया तथा इसमें हिन्दू सदस्य को जगह दी गयी.
मुस्लिम लीग तब और भी ज्यादा ब्रिटिश सरकार से खफा हो गयी जब 1911 मे बंगाल विभाजन को सरकार द्वारा ख़ारिज कर दिया गया.
तीसरी घटना ने मुस्लिम लीग के और मुस्लिम समुदाय के जले में नमक छिड़कने का काम किया। 28 जुलाई 1914 को पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ। इस विश्वयुद्ध में तुर्की का ऑटोमन एंपायर भी शामिल हुआ था। तथा तुर्की के प्रमुख को दुनिया के सभी मुस्लिम अपना खलीफा मानते थे। तथा भारत के मुसलमान भी इन्हें अपना खलीफा याने की धार्मिक गुरु मानते थे। विश्वयुद्ध दो समूह के देशों के बिच हो रहा था एक अलाइड पावर तथा दूसरी थी सेंट्रल पावर। अलाइड पावर मे ब्रिटिश,फ्रांस, जापान इटली जैसे देश थे। तथा सेंट्रल पावर में थी जर्मनी ऑस्ट्रिया, हंगरी, बुल्गारिया तथा ऑटोमन एंपायर। इसका मतलब ऑटोमन एंपायर यह ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे। इसलिए भारतीय मुस्लिमों की वफादारी ऑटोमन एंपायर के तरफ से थी। इन तीन मुद्दों के कारण मुस्लिम लीग ब्रिटिश सरकार को समर्थन नहीं कर पा रही थी। इन तीन घटनाओं के कारण ब्रिटिश सरकार मुस्लिम लीग के नजर से उतर गई थी।
मुस्लिम लीग का कोंग्रस से मिलकर संघर्ष करने का निर्णय
मुस्लिम लीग को कुछ भी करके मुस्लिम समुदाय के हितों की रक्षा करना था। इसलिए मुस्लिम लीग ने निर्णय लिया कि अब हम कांग्रेस के साथ मिलकर ब्रिटिश हुकूमत के साथ संघर्ष करेंगे क्योंकि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। मुस्लिम लीग के लीडर्स ने ने निर्णय लिया कि कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग मिलकर अपनी मांगे ब्रिटिश सरकार से मनवायेगी. याने काफी अरसे बाद हिंदू मुस्लिम एकता दिखाकर ब्रिटिश सरकार को दबाव में लाने की रणनीति थी।
लखनऊ पैक्ट में मोहम्मद अली जिन्नाह की भूमिका
मुस्लिम लीग तथा इंडियन नेशनल कांग्रेस को साथ लाने की भूमिका मोहम्मद अली जिन्नाह ने बखूबी निभाई थी। असल में मोहम्मद अली जिन्नाह ने कांग्रेस 1906 में ज्वाइन की थी जबकि मुस्लिम लीग ज्वाइन की थी 1913 में। उस समय मोहम्मद अली जिन्नाह दोनों ही संगठन के सदस्य थे। मोहम्मद अली जिन्नाह ने वर्ष 1920 में कांग्रेस छोड़ी थी। मोहम्मद अली जिन्नाह के प्रयासों के कारण इंडियन नेशनल कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने साथ आने का निर्णय लिया. इस भूमिका को लेकर सरोजिनी नायडू ने मोहम्मद अली जिन्ना को हिंदू मुस्लिम एकता का राजदूत बताया।
लखनऊ पॅक्ट के महत्वपूर्ण प्रोविजन.
सबसे पहला पॅक्ट साइन हुआ था डोमिनियन स्टेटस से संबधित. इस सेशन में इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष अंबिकाचरण मजूमदार तथा मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मोहम्मद अली जिन्ना ने एग्री किया कि दोनों पार्टी ने मिलकर भारत में स्वराज याने की self-government की मांग करना चाहिए।
साथी एग्रीमेंट का एक और प्रोविजन था कि सेंट्रल लेजिस्लेचर में किसको कितना रिप्रेजेंटेशन मिलना चाहिए?
असल में 1909 के मोर्ले मिंटो रिफार्म में सेंट्रल लेजिस्लेचर में कुल सदस्यों की संख्या 60 कर दी थी लेकिन मुस्लिम लीग तथा इंडियन नेशनल कांग्रेस ने यह निर्णय लिया की संख्या बढ़ाकर 150 कर देनी चाहिए जिसमें कम से कम 75 लोग भारतीय होना चाहिए। तथा इन 75 लोगों में एक तिहाई सदस्य मुस्लिम होना चाहिए।
इसके बाद इस सेशन में तीसरा सबसे बड़ा एग्रीमेंट हुआ सेपरेट इलेक्टोरेट्स को लेकर। इंडियन नेशनल कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच समझौता हुआ कि एक तिहाई सीट पर मुस्लिम को सेपरेट इलेक्टोरेट मिलना चाहिए.
चौथा समझौता हुआ कम्युनल वीटो को लेकर। यहां पर कहा गया कि अगर सेंट्रल लेजिस्लेचर मे कोई भी ऐसा बिल लाया गया उसका असर किसी कम्युनिटी में है तो उस कम्युनिटी के एटलीस्ट तीन चौथाई मेंबर जो कांस्टीट्यूएंट असेंबली में होंगे। उनके मंजूरी के बिना यह बिल पास नहीं होगा। मतलब कोई बिल किसी कम्युनिटी से संबंधित है तो उस कम्युनिटी को वीटो देने की बात कही गई। इंडियन नेशनल कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने इस बात पर सहमति जता दी।
लखनऊ सेशन में पांचवा एग्रीमेंट हुआ जुडिशरी तथा एग्जीक्यूटिव के सेपरेशन को लेकर. असल में यहां पर सिपरेशन ऑफ पावर से संबंधित बात कही गई। जिसके हिसाब से एग्जीक्यूटिव का का काम होगा लॉ बनाना और उसे इंप्लीमेंट करना। और ज्यूडिशरी का काम होगा जनता को न्याय देना. क्योंकि दोनों काम अपने आप में अलग है तथा ज्यूडिशरी और एग्जीक्यूटिव ने एक दूसरे के काम में टांग नहीं अड़ाना चाहिए.
ब्रिटिश सरकार ने अपने सभी कॉलोनी मे अपने एक कैबिनेट मिनिस्टर को वहा के कामकाज पर नज़र रखने के लिए अपॉइंट किया था जिसे सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट कहा जाता था. सेक्रेटरी ऑफ स्टेट का वेतन इंडिया के फंड से दिया जाता था दोनों पार्टी के बीच इस मसले को लेकर समझौता हुआ की वे सरकार से मांग करेंगे की इसकी सैलरी इंडियन फण्ड से ना दी जाए.
एक महत्वपूर्ण समझौता यह भी हुआ कि जो इंडियन एग्जीक्यूटिव काउंसिल की टर्म हैं वो 3 वर्ष से बढ़ाकर 5 वर्ष किया जाए।