आज के आर्टिकल में हम इल्बर्ट बिल के बारे में चर्चा करेंगे जिसे व्हाईट म्युटिनी 1883 के नाम से जाना जाता है। यह बिल इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी वजह से इंडियन नेशनल कांग्रेस का गठन हुआ। वर्ष 1883 के दौरान सर लार्ड रिपन यह वॉयसराय थे। लॉर्ड रिपन ने भारत के वायसराय के रूप में 1880 से लेकर 1884 तक अपना कार्यकाल संभाला तथा वे एक उदारवादी वोइसरॉय थे. लार्ड रिपन के एग्जीक्यूटिव काउंसिल में एक लॉ मेंबर था तथा उसका नाम था सी पी इल्बर्ट था. जैसे कि हमने अपने पिछले आर्टिकल में पढ़ा था की 1833 के एक्ट में एक व्यवस्था की थी की एग्जीक्यूटिव कौंसिल का चौथा सदस्य एक लॉ मेंबर याने की एक कानून की जानकारी रखने वाला सदस्य होगा. और भारत का पहला लॉ मेंबर था लार्ड मेकोले.
इल्बर्ट बिल यह सी पी इल्बर्ट ने ड्राफ्ट किया था इसलिए इसे इल्बर्ट बिल के नाम से जाना जाता है। यहां पर एक चीज नोटिस करने वाली है क्या लार्ड रिपन देवता आदमी है? यानी जिसने खुद कोई क्रेडिट ना लेकर सी पी इलबर्ट के नाम से ही यह बिल का नाम रख दिया। लेकिन यहां एक बात जानने लायक है कि भले ही लॉर्ड रिपन कोई देवता ना हो लेकिन एक समझदार इंसान जरूर है। क्योंकि जब इल्बर्ट बिल इंट्रोड्यूस किया गया तब इलबर्ट का स्वागत जूते और चप्पलों से ही हुआ। जब यह बिल पारित हुआ और लागू किया गया तब इलबर्ट को काफी आलोचना सहन करना पड़ी। इस बिल की आलोचना स्थानीय ब्रिटिश नागरिको ने की इसके अलावा ब्रिटिश के निवासियों को भी यह बिल जमा नहीं तथा उन्होंने भी बहुत आलोचना की.
इलबर्ट बिल के विरोध के कारण तथा इससे जुड़े विवाद
इस बिल का मुख्य उद्देश्य था कि न्यायपालिका से रेसियल याने की नस्लीय भेदभाव को खत्म करना था l यानि की जज काला हो या गोरा दोनों को पावर यानि की शक्तिया इस बिल के अंतर्गत समान रूप से दे गयी थी I बेसिकली यह बिल भारत के एक्ससिस्टेन्स लॉ को बदलना चाहता था। ताकि वे भारतीय जजेस तथा मैजिस्ट्रेट भी उन भारतीय में रह रहे ब्रिटिश नागरिको पर फैसला सुना पाए जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज़ हो तथा उनके खिलाफ न्यायिक कार्यवाही चल रही हो. इसके पूर्व इंडियन जज ब्रिटिशर्स अपराधी के खिलाफ फैसला नहीं सुना सकते थे बल्कि इनको सजा देने की जिम्मेदारी या अधिकार केवल ब्रिटिश जज को था लेकिन यहाँ यह बात समज़ने वाली हैं की प्रेसीडेंसी लेवल के कोर्ट में भारतीय न्यायधीश ब्रिटिशर्स पर न्यायिक फैसला सुना सकते थे लेकिन छोटे मोटे गाओं कस्बो में भारतीय न्यायधिशो को फैसला सुनाने का अधिकार नहीं थाI
रिपन एक उदारवादी इंसान था इसलिए वह इस रेसियल डिस्क्रिमिनेशन को याने की नस्लीय भेदभाव को न्यायिक व्यवस्था से नष्ट करना चाहता था। इसलिए रिपन ने 1883 में यह बिल इंट्रोड्यूस किया. लेकिन ब्रिटिश के भारी विरोध के कारण इस बिल को लॉर्ड रिपन ने पीछे ले लिया। इस बिल का सबसे ज्यादा भारी विरोध नारी शक्ति ने किया था यानी कि ब्रिटिश वुमन ने। क्योंकि उस समय एक ऐसी अफवाह थी कि भारतीय सिपाहियों ने 1857 के रिवोल्ट में ब्रिटिश महिलाओ के साथ दुष्कर्म किया था इसलिए भारतीय पुरुषों के खिलाफ ब्रिटिश महिलाओ को घृणा थी तथा वे भारतीय न्यायधिशो के सामने न्यायिक कार्यवाई के लिए बिलकुल भी नहीं जाना चाहती थीI
इसके अलावा ब्रिटिशर्स को बिल्कुल भरोसा नहीं था कि इंडियन जजेस निष्पक्ष फैसला देंगे. उस समय बंगाली लोग जजेस बनते थे तथा ऐसे वक्त ब्रिटिश महिलाओ ने एक ट्रिक लगायी तथा बंगाली पुरुषो के चरित्र पर उंगली उठायी तथा अपने पक्ष में यह सफाई दी की यह बंगाली पुरुष अपने औरतो से इज्जत से पेश नहीं आते तो ब्रिटिश औरतो से यह इज्जत से पेश आएंगे इसकी क्या गारंटी ?
ब्रिटिश औरतो के अलावा इस बिल का विरोध अंग्रेज इंडिगो तथा चाय बागानों के मालिकों ने किया क्योकि अंग्रेज मालिक भारतीय मजदूरों को बंधुआ मजदूरों की तरह करते थे और अगर कोई इनके खिलाफ कंप्लेंट कर दे तो अंग्रेज मालिक तथा अंग्रेज जज आपस में साठ गांठ करके या रिश्वत लेकर आपस में मामला रफा दफा कर देते थे. लेकिन अगर इलबर्ट के कारण अगर कोई भारतीय जज आएंगे तो उनकी मुश्किलें खड़ी हो सकती थी इसलिए वे विरोध कर रहे थे.
ब्रिटेन में बैठे अंग्रेजो की ईगो हर्ट हो गया था क्योकि भारतीय यानि काला आदमी उन्हें फैसला देंगे उनको यह गवारा नहीं हो रहा था इस प्रकार चारो तरफ से अंग्रेजो द्वारा इस बिल का विरोध हो रहा था अंत में इस बिल को दबाव के चलते, रिपन द्वारा इस बिल को वापस ले लिया गया तथा 1884 में diluted फॉर्म में इसे पुनः लाया गया तथा इसका नाम बदलकर रखा गया क्रिमिनल प्रोसीजर कोड अमेंडमेंट बिल 1884.
इसके मुताबिक कोई भी भारतीय न्यायधीश अगर किसी ब्रिटिश नागरिक की सुनवाई कर रहा हैं तो ऐसे वक्त जूरी में 50 प्रतिशत ब्रिटिश जज रहेंगे.तथा एक नए तरह का नस्लीय भेदभाव को इस बिल द्वारा प्रमोट किया गया क्योकि इस एक्ट में अंग्रेज नागरिक के न्यायिक करवाई के खिलाफ ज्यूरी व्यवस्था लायी गयी मतलब एक से ज्यादा जजेस की बेंच होंगी जिसमे 50 प्रतिशत अंग्रेज जज होंगे तथा इस तरह ब्रिटिश नागरिक ख़ुश हो गए.
इस विवाद के बाद भारतीय बुद्धिजीवी समझ गए की अंग्रेजो से रेसियल इक्वलिटी की उम्मीद रखना बिलकुल बेकार हैं तथा अंग्रेजो द्वारा काला गोरे का भेद मिटाना नामुमकिन हैं परिणामस्वरुप भारतीयों में इस बिल के विवाद को देख भारतीयों में राष्ट्रीय भावना का जागरण हुआ तथा बुद्धिजीवी वर्ग अंग्रेजो से उन्ही की भाषा में जवाब देने के लिए सजग हुए l धन्यवाद I