आजाद हिन्द फौज

आज के आर्टिकल में हम आजाद हिन्द फौज के बारे में  चर्चा करेंगे. इंडियन नेशनल आर्मी की स्थापना सुभाषचंद्र बोस ने की थी. 

पृष्ठभूमि

द्वितीय विश्व युद्ध 1 सितम्बर 1942 को शुरू हुआ साउथ ईस्ट एशिया में ब्रिटिशर्स की बहुत सारी कॉलोनीज थी जैसे की फिलीपींस, हांगकांग, मलाया पेनिनसुला, सिंगापोर, क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान तथा ब्रिटेन आमने सामने थे इसलिए इन ब्रिटिश कॉलोनीज पर जापानीस आक्रमण का ख़तरा मंडरा रहा था इसलिए ब्रिटिशर्स ने लगभग सत्तर हज़ार भारतीय  ट्रुप्स को ब्रिटिश कॉलोनीज में भेजा और साथ ही साथ 3 सितम्बर 1939 को लार्ड लिनलिथगो ने बिना भारतीय नेताओ को पूछे एक घोषणा की जहां उन्होंने कहा की द्वितीय विश्व युद्ध में भारत ब्रिटेन के समर्थन में हैं. वोइसरॉय के इस घोषणा से सारे भारत में गुस्सा था.

नेताजी का सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का सुझाव

लोगो का मानना था की 1937 के इलेक्शन में जो भारतीय नेता निर्वाचित होकर आये हैं कम से कम उनको तो पूछ लेते. इसके विरोध में कांग्रेस ने प्रांतीय विधानसभा से इस्तीफा दे दिया था. ऐसे समय सुभाषचंद्र बोसजी का मानना था की केवल मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पर्याप्त नहीं हैं उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की बात  एक कांग्रेस के  मीटिंग में मांग कर डाली. लेकिन गांधीजी आंदोलन की बात से असहमत थे

नेताजी का कोलकाता में आंदोलन

तो नेताजी  ने सोचा पुरे देश में ना सही कलकत्ता में वे एक प्रोटेस्ट की शुरुआत कर ही सकते हैं तो नेताजी ने हॉलवेल मोन्यूमेंट को रिमूव करने के लिए स्वयं कलकत्ता में एक आंदोलन शुरू किया. ब्लैकहोल घटना से जो थोड़े बहुत लोग ज़िंदा बचे थे हॉलवेल उसमे से एक थे ब्लैकहोल घटना की याद में उन्होंने खुद यह मोन्यूमेंट बनवाया था. ब्लैकहोल एक बहुत ही दर्दनाक घटना थी जिसमें 146 लोगो को बेरहमी से भर दिया गया था जिसमें 146 लोगो की दम घुटने से मृत्यु हो गयी थी जिसके बारे में जानकारी प्लासी युद्ध में दी गयी हैं.

इस मोन्यूमेंट से ब्रिटिशर्स का जबरदस्त भावनात्मक लगाव था एवं सुभाषचंद्र बोस बोल रहे थे की इस मोन्यूमेंट को यहां से हटाओ लेकिन सुभाषचंद्र बोस को यह कदम ब्रिटिश सरकार को पसंद नहीं आया एवं उन्होंने सुभाषचंद्र बोस को हिरासत में ले लिया.

सुभाषचंद्र बोस अपने निवास में नजर कैद

प्रतिक्रिया में सुभाषचंद्र बोस ने जेल में भूख हड़ताल रख दी जिससे उनकी तबियत ख़राब हो गयी इसलिए पुलिस ने उन्हें जेल से रिहा कर उनके घर में नजर कैद कर लिया एवं पुलिस की निगरानी रखी. उन्हें घर से निकलना वर्जित था. बोसजी ने दाढ़ी बढाकर पुलिस को चकमा देकर पठान  का वेश लेकर 17 जनवरी 1941 को घर से निकले एवं कोलकाता से पेशावर जा पहुंचे उसके बाद बोस नार्थवेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस से गुजरते हुए वे अफगानिस्तान गए फिर रूस पहुंचे और रूस से इटली एवं अंत में जर्मनी पहुंचे.

जर्मनी में नेताजी ने एक फ़ौज बनायीं

उस समय जर्मनी के वॉर कैंप में बहुत सारे भारतीय सैनिक थे जो ब्रिटेन की तरफ से लड़ने की कारण वे जर्मनी के जेल में कैद थे. यह भारतीय सैनिक ब्रिटिश सरकार द्वारा  द्वितीय विश्व युद्ध में उत्तरी अफ्रीका में तैनात किया गए थे और जर्मनी ने इन्हे अपने मित्र देशो की मदत से अपने देश में बंदी बना लिया था मतलब जर्मनी इन भारतीय सैनिको को उत्तर अफ्रीका से कैद करके अपनी देश में लाया था. सुभाषचंद्र बोस ने जर्मनी के सत्ताधारी की सहारे इन्हे इक्कट्ठा किया एवं एक फ़ौज बनायीं ताकी यह फ़ौज भारत से ब्रिटेन को उखाड़ फेके इस फ़ौज में लगभग 4500 सैनिक थे एवं इस आर्मी को नाम दिया गया  फ्री इंडियन लीजेंड.

किन्तु यहां सोचने वाली बात यह हैं की जर्मन के अधिकारी बोस को क्यों मदत कर रहे थे? 

क्योंकि इसमें हिटलर समेत जर्मन सत्ताधीश का भी फायदा था.क्योंकि जर्मन एवं ब्रिटेन आमने सामने लड़ रहे थे.अगर सुभाष बाबू आर्मी बनाकर ब्रिटेन पर आक्रमण करते भी हैं तो इसमें फायदा जर्मनी का ही था क्योंकि आक्रमण तो उनके शत्रु पर होने वाला था. लेकिन इस बिच दो तीन ऐसी घटनाये घटित हुयी जिससे सुभाषचंद्र बोस को जर्मनी के इरादों पर शक होने लगा एवं उनका जर्मनी से विश्वास उठ गया.

वे कारण जिससे नेताजी का जर्मनी से विश्वास उठ गया

पहला कारण यह था की हिटलर रूस पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था. दूसरा हिटलर ने अपनी आत्मकथा पर कुछ ऐसे विवादित चीज़े लिखी थी की सुभासचन्द्र बोस को वह बाते पटी नहीं थी. तीसरी बात जब हिटलर एवं सुभाष बाबू की मीटिंग हुयी तो वहाँ कुछ ऐसा हुआ की सुभाषचंद्र बोस का हिटलर से विश्वास उठ गया.

पहली योजना थी रूस पर आक्रमण करना लेकिन सुभाष बाबू लगातार पत्र व्यवहार के जरिये ब्रिटिश अथॉरिटी को समझा रहे थे की ऐसा न करे क्योंकि भारत की अधिकांश जनता को रूस के बारे में लगाव था एवं रूस के प्रति लोग  इज्जत करते थे और अगर जर्मनी रूस पर आक्रमण करता हैं तो भारतीय के मन में जर्मनी के प्रति दुश्मनी की भावना पनपेंगी और वैसे भी हिटलर की छवि लोगो के मन में नकारात्मक ही थी. नेताजी ने हिटलर को समझाने का प्रयास किया, लेकिन सब व्यर्थ साबित हुवा  क्योंकि जर्मनी ने 22 जून 1941 को रूस पर आक्रमण कर दिया.

इसके अलावा नेताजी चाहते थे की हिटलर अपनी आत्मकथा में कुछ बदलाव करे क्योंकि उसने अपनी आत्मकथा में भारत को अपमानित करने वाले कुछ शब्द लिखे थे और हिटलर से उन्होंने गुजारिश करी की वे उन शब्दों को हटा दे लेकिन हिटलर ने नेताजी की एक ना सुनी.

लेकिन यहाँ प्रश्न पड़ता हैं की आखिर नेताजी हिटलर से यह सब अपेक्षा क्यों कर रहे थे ?
क्योंकि उनका तो मुख्य उद्देश्य भारत को किसी तरह आज़ाद कराना था और हिटलर के आत्मकथा से उनका क्या नुकसान होने वाला था. हिटलर जैसा सनकी आदमी ये सब क्यों करेगा उसके मन में तो विश्व युद्ध एवं अपमान का जूनून सवार था. एवं उसने अपनी आत्मकथा 1925 में लिखी थी और नेताजी 1941 में इन सब बातो का जिक्र कर रहे थे जो उस समय  हिटलर के लिए महत्व की बात नहीं थी.

नेताजी का असल उद्देश्य क्या था?

नेताजी का उद्देश्य था की हिटलर की मदत से ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देकर भारत से उन्हें भगाना. ऐसे समय अगर भारतीयों के मन में हिटलर के प्रति क्रोध रहेगा तो भारतीय लोग नेताजी से नाराज हो जायेगे. वे सोचेंगे की नेताजी हिटलर से अनावश्यक मदत ले रहे हैं एवं वे सोचेंगे की जर्मनी से अच्छे तो ब्रिटेन ही हैं.

तीसरी घटना ऐसी घटी की नेताजी का हिटलर से पुरी तरह विश्वास उठ गया और नेताजी को अपनी अंतरात्मा से आवाज़ आने लगी की तानाशाह हिटलर कोई काम का नहीं हैं और भलेही वह भारत से ब्रिटेन को भगाने में मदत करे लेकिन ऐसा न हो की जर्मनी भारत पर राज करने लगे फिर सुभाषचंद्र बोस ने परख लिया, की हिटलर पर केवल सत्ता का नशा हैं तपश्चात उन्होंने जापान में जाने का निर्णय लिया. क्योंकि जपान द्वितीय विश्व युद्ध में  ब्रिटेन के खिलाफ लड़ रहा था.

नेताजी जापान के लिए रवाना

नेताजी की सोच थी की शत्रु का शत्रु मित्र होता हैं तो क्योंना  जापान की मदत से देश को आज़ाद कराने की कोशिश की जाये. जापान एवं जर्मनी का रवैया, दृष्टिकोण एवं विचारधारा  अलग अलग थी इसलिए नेताजी की आखरी उम्मीद जापान थी यहाँ समज़ना जरुरी हैं की नेताजी का लक्ष्य किसी भी हाल में भारत को आज़ाद कराने का था एवं वे खुद की जान जोखिम में लेकर वे  यथासंभव प्रयास कर रहे थे इसलिए वे फ़रवरी 1943 को जर्मनी छोड जहाज से जापान के लिए रवाना हो गए.

साउथ ईस्ट एशिया एवं मलाया पेनिनसुला जापान के कब्जे में

नेताजी चार हज़ार भारतीय सैनिकोको छोडकर जापान पहुंच रहे थे जिन्हे उन्होंने नाम दिया था द इंडियन लिजेंड.उस समय जापान में एक सिन चल रहा था लेकिन इसके पीछे भूतकाल में घटी एक बात थी. जैसे की हम सभी जानते हैं की लार्ड लिनलिथगो ने  भारतीयों को विश्वास में लिए बगैर घोषणा की थी, की भारत द्वितीय विश्व युद्ध में भारत देश ब्रिटेन का समर्थन कर रहा हैं और ब्रिटेन ने 70000 भारतीय सेनाओ को साउथ ईस्ट एशिया में तैनात कर दिया था. इसी टुकड़ी की भारतीय सेनाये जब मलाया पेनिनसुला में भेजी गयी तब उसके प्रमुख थे मोहन सिंह. यह बटालियन को भेजने का कारण था क्योंकि साउथ ईस्ट एशिया में ब्रिटेन की कॉलोनीज थी एवं युद्ध के चलते वहाँ जापान सेना का आक्रमण का ख़तरा मंडरा रहा था. एवं ब्रिटेन का यह अनुमान सटीक निकला और जापान ने मलाया सहित सभी साउथ ईस्ट एशियन कंट्री जहां भारतीय ब्रिटेन की आर्मी थी उनको अपने कब्जे में ले लिया और बहुत से भारतीय जवानो को बंदी बना लिया.

जापान में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना.

बंदी बनाये गए सैनिको में एक मोहन सिंह भी थे और बंदी बनाये गए समूह को प्रिज़नर ऑफ़ वॉर कहा जाता हैं ग़दर आंदोलन के वक्त हमने पढ़ा था की ग़दर आंदोलन असफल होने के बाद राजबिहारी बोस जापान में रहने लगे थे. राजबिहारी बोस ने 1942 में जापानीज सरकार की मदत से इंडियन इंडिपेंडेंस लीग बनायीं थी. इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का मुख्य उद्देश्य था की लीग के सैनिको के मदत से भारत को आज़ादी दिलाना.  इन्होने जापानीस सरकार से अनुरोध किया की इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के अंतर्गत एक आर्मी बनायीं जाये जो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़कर भारत को आज़ाद करा सके. इससे जापान को भी फायदा था क्योंकि जापान एवं ब्रिटेन एक दूसरे के शत्रु थे और ब्रिटेन इस आक्रमण से और कमजोर होगा. मलाया एवं साउथ ईस्ट एशिया के भारतीय सैनिको को इकठ्ठा करके आर्मी बनाने की योजना बनायीं गयी थी.

इंडियन नेशनल आर्मी बनायीं गयी

लेकिन अब एक चुनौती थी की इन भारतीय प्रिजनर ऑफ़ वॉर के सैनिक को इकठ्ठा करने के लिए उन्हें  एक जनरल की आवश्यकता थी तथा राजबिहारी बोस के मन में एक नाम आया मोहन सिंह. राजबिहारी बोस ने जापानीज आर्मी के प्रमुख मेजर फुजिवाया के साथ मिलकर मोहन सींग के पास गए उन्होंने मोहन सिंह के सामने प्रस्ताव रखा की आप जवानो को संगठित करके एक आर्मी बनाये इस प्रस्ताव को स्वीकार करना मोहन सिंह के लिए आसान नहीं था क्योंकि 18 वर्षो से मोहन सिंह ब्रिटिशर्स के लिए काम कर रहे थे एवं इनके आगे प्रस्ताव इस बात का रखा गया की आपको ब्रिटिशर्स के खिलाफ लड़ने के लिए फ़ौज बनाना हैं. मोहन सींग भी समझ भी नहीं पा रहे थे गद्दारी कैसे कर सकता हूं. लेकिन जब इनको यह बात समझ आयी की ब्रिटिश के गद्दारी से ज्यादा देश के लिए मर मिटना ज्यादा अच्छा हैं और यह सोचकर उन्होंने बात मान ली और उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी बनाने की बागडौर अपनी हाथो में लेली. मलेशिया सिंगापोर से 40000- 40000 सैनिक उन्होंने इकठ्ठा किये.और साउथ ईस्ट एशिया से भी कुछ सैनिक इकठ्ठा करके इंडियन नेशनल आर्मी बनायीं गयी एवं मोहन सिंह इस आर्मी के जनरल नियुक्त हुए. इसे ही प्रथम इंडियन नेशनल आर्मी कहा जाता हैं.

इंडियन नेशनल आर्मी को डिस्बैण्ड कर दिया गया

किन्तु मोहन सिंह जापान के लिए सेम भावनाये आ रही थी जो नकारात्मक भावना नेताजी को जर्मनी के लिए आ रही थी एवं मोहन सिंह को लग रहा था की जापानीज आर्मी इन सेना का प्रयोग खुद के फायदे के लिए करना चाहते हैं. एवं इसी के चलते मोहन सींग के जापानीज आर्मी के साथ कई दफा मतभेद हुए परिणामस्वरूप इन मतभेदों की वजह से मोहन सिंह एवं जापान आर्मी के संबध बिगड़ गए और 29 दिसंबर 1942 को मोहन सिंह को कमांड से हटाकर जापान मिल्ट्री के हवाले उनकी आर्मी को कर दिया गया एवं इंडियन नेशनल आर्मी को डिस्बैण्ड कर दिया गया एवं उन्हें वापिस प्रिजनर ऑफ़ वॉर में भेज दिया गया.

सुभाषचंद्र बोस का जापान में आगमन

वर्ष 1943 में नेताजी का आगमन जापान में होता हैं. जब बोसजी जापान में आते हैं तो वे  इंडियन नेशनल आर्मी बनाने की प्रक्रिया को पुनर्जीवित होती हैं. उसी वर्ष जुलाई में सिंगापूर में एक मीटिंग बुलाई जाती हैं इस मीटिंग में राजबिहारी बोस इंडियन नेशनल आर्मी की बागडौर नेताजी को सौप देते हैं सुभाषचंद्र बोस अपने प्रयासों से एक बार फिर नेशनल आर्मी खड़ी कर देते हैं.

लोगो के बिच आर्मी को लेकर उत्साह का माहौल

उस समय नेताजी की लोकप्रियता शिखर पर थी और जैसे ही पता चला की इंडियन नेशनल आर्मी का नेतृत्व नेताजी शुभाषचंद्र बोस करेंगे तब साउथ ईस्ट एशिया में रह रहे भारतीयों का उनको भारी समर्थन मिला और केवल प्रिजनर ऑफ़ वॉर के सैनिको ने ही नहीं बल्कि आम भारतीयों ने इंडियन नेशनल आर्मी को खुदको शामिल किया एवं इतनाही नहीं संगठन को वित्तीय सहायता भी प्रदान की एवं इस तरह इंडियन नेशनल आर्मी एक बार फिर बनकर तैयार हो गयी इंडियन नेशनल आर्मी में सुभाषचंद्र बोस ने एक अलग महिला टुकड़ी भी बनायीं तथा इस टुकड़ी नाम रखा गया झांसी की रानी रेजिमेंट और इस टुकड़ी का नेतृत्व कर रही थी कॅप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन उस समय एक अलग महिला टुकड़ी केवल नेताजी ही सोच सकते थे पुरे दुनिया के इतिहास में पहली बार ऐसा देखा गया की एक आल वीमेन कॉम्बेट स्क्वाड बनायीं गयी. इंडियन नेशनल आर्मी की एक खास बात यह थी की किसी भी सैनिक को भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता था. हिन्दू सैनिक हो या मुस्लिम सैनिक सभी को समान  इज्जत दी जाती थी एवं सभी को समानता से व्यवहार किया जाता था. हालांकि यह समानता का पैलु ब्रिटिश आर्मी में लागू नहीं होती थी वहा सिख, गोरखा,मराठा, महार जैसी रेजिमेंट जातियों में विभाजित थी वहाँ जाती,धर्म के नाम पार भेदभाव किया जाता था.

चार ब्रिगेड का गठन

सुभाषचंद्र बोस के आर्मी में चार ब्रिगेड थी गाँधी ब्रिगेड,नेहरू ब्रिगेड, आजाद ब्रिगेड एवं सुभाष ब्रिगेड नेताजी ने अपनी ब्रिगेड को एक दमदार नारा दिया और वह नारा आज भी लोकप्रिय हैं ” तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा”!  इसके अलावा एक और गीत था कदम कदम बढ़ाये जा ख़ुशी के गीत गाये जा!  यह गीत भी आज़ाद हिन्द फ़ौज से हमको मिला जो उनके हौसलों को उड़ान देता था. इसके अलावा जय हिन्द का नारा भी आज़ाद हिन्द फ़ौज ने हमें दिया.

आज़ाद हिन्द सरकार एवं फ़ौज की स्थापना

नेताजी ने केवल आज़ाद हिन्द फ़ौज नहीं बनाई थी बल्कि एक प्रोविजनल गवर्नमेंट की भी स्थापना की थी जिसका नाम था आज़ाद हिन्द गवर्नमेंट इंडियन नेशनल आर्मी आज़ाद हिन्द गवर्नमेंट की आर्मी थी इसलिए इंडियन नेशनल आर्मी को आज़ाद हिन्द फ़ौज भी कहा जाता हैं.

आजाद हिन्द सरकार भारत की एक प्रोविजनल सरकार थी जिसे सिंगापूर में स्थापित किया गया था इनकी अपनी मुद्रा थी, अपने कोर्ट्स और लॉ थे. इस सरकार के प्रधानमंत्री सुभाषचंद्र बोस थे प्रत्तेक सरकार की तरह यहाँ पर मंत्रिमंडल थी और मंत्री थे. एस ए अय्यर थे ब्रॉडकास्ट मिनिस्टर,एसए  चटर्जी थे मिनिस्टर ऑफ़ फाइनेंस बहुत सारे प्रोटफोलिओ और गवर्नमेंट मिनिस्टर थे.

आजाद हिन्द सरकार को एक देश के रूप में मान्यता

आज़ाद हिन्द सरकार को नौ देशो ने गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया के तहत रिकग्नाइज़ किया था. यह देश थे जापान,इटली, जर्मनी, क्रोएशिया, चीन,बर्मा तथा फिलीपींस इन देशो के साथ आज़ाद हिन्द सरकार के कूटनीतिक सम्बद्ध भी थे. भलेही आज़ाद हिन्द सरकार को नौ देशो ने मान्यता  प्रदान की हो किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए की आज़ाद हिन्द सरकार जापान के  वित्तीय, मिल्ट्री सुरक्षा के बदौलत काम कर रही थी यानि इनकी अधिकांश निर्भरता जापान पर थी. आजाद हिंद सरकार के पास ऐसी कोई विशेष जगह भी नहीं थी कि वह एक सार्वभौमिक सरकार कहलाए क्योंकि सार्वभौमिक देश की एक जगह होती है उसकी बाउंड्री होती है और यहां नेताजी सुभाष चंद्र बोस  का देश खुद एक गुलाम देश था.

अंदमान निकोबार द्वीप में नॉमिनल अथॉरिटी

इसलिए इस समस्या का हल निकाला गया। अंडमान और निकोबार द्वीप को जापान ने वर्ष 1943 में अपने नियंत्रण में ले लिया इस पर नियंत्रण करने के बाद जापान ने नॉमिनल अथॉरिटी आजाद हिंद सरकार को दे दी थी। नियंत्रण मिलने के बाद आजाद हिंद सरकार ने इन द्वीपों का नाम बदलकर शहीद एवं स्वराज रख दिया। नॉमिनल अथॉरिटी का मतलब यह है कि असल में यह अथॉरिटी भले ही आजाद हिंद फौज के पास थी लेकिन यहां पर थोड़ी बहुत  जापानी फौज थी इसका मतलब इसकी पूरी अथॉरिटी आजाद हिंद सरकार के पास नहीं थी।

पहली जित दर्ज़

इसके बाद  अप्रैल 1944 में इंपीरियल जापानीस आर्मी के साथ  मिलकर लड़कर आजाद हिंद फौज ने भारतीय मिट्टी में अपनी पहली जीत दर्ज की यह जीत उन्होंने मणिपुर और नागालैंड जैसे राज्यों में जीती थी। आजाद हिंद फ़ौज  नागालैंड के कोहिमा एवं मणिपुर  के इंफाल में  प्रवेश कर चुकी थी और  मणिपुर में एक मोयराक नाम की  जगह है  वहां पर इंडियन नेशनल आर्मी ने पहली बार भारत के झंडे को फहराया था.

जापान एवं आज़ाद हिन्द सेना की पराजय

लेकिन इसके बाद लॉजिस्टिक की काफी कमी हो गयी स्थितियां नाजुक हो चुकी थी। आजाद हिंद फौज के  पास बंदूक, बारूद, गोलिया तथा राशन की कमी हो गई। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने हवाई फायर के माध्यम से जीती हुई जगह को अपने कब्जे में ले ली। जापान और इंडियन नेशनल आर्मी की संयुक्त सेना इस हमले का जवाब नहीं दे पायी  और जीती हुई जगह को छोड़कर उन्हें वहां से निकलना पड़ा। अंतः द्वितीय विश्वयुद्ध में अलाइड फोर्सेज  यानी कि ब्रिटेन तथा अमेरिका की जीत हुई। आजाद हिंद सेना, जापान एवं बर्मा  कैंपेन द्वितीय विश्वयुद्ध हार चुके थे और 16000 भारतीय सेनाओं को ब्रिटिश सरकार ने बंदी बना दिया था।

नेताजी की मृत्यु की खबर.

उसी दौरान अगस्त 1945 में एक दुखद घटना घटी और खबर आई कि नेताजी विमान दुर्घटना में चल बसे यानी उनका निधन हो गया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के निधन के साथ आजाद हिंद फौज और उसका भारत को आज़ाद कराने का सपना पूरी तरह टूट चुका था। यह थी कहानी आज़ाद हिन्द फ़ौज की.





































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